Welcome to Our Community Blog to enjoy old memories including beautiful scenes, some spiritual articles and some highlights of our mother land India.

Wednesday, 4 October 2017

DEVI MAHATMYAM ARGALAA STOTRAM – DEVANAGARI

DEVI MAHATMYAM ARGALAA STOTRAM – DEVANAGARI

This stotram is in शुद्ध दॆवनागरी (Samskritam). View this in सरल दॆवनागरी (हिंन्दी), with simplified anuswaras for easy reading.

रचन: ऋषि मार्कण्डेय
अस्यश्री अर्गला स्तोत्र मन्त्रस्य विष्णुः ऋषिः। अनुष्टुप्छन्दः। श्री महालक्षीर्देवता। मन्त्रोदिता देव्योबीजं।
नवार्णो मन्त्र शक्तिः। श्री सप्तशती मन्त्रस्तत्वं श्री जगदन्दा प्रीत्यर्थे सप्तशती पठां गत्वेन जपे विनियोगः॥
ध्यानं
ॐ बन्धूक कुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीं।
स्फुरच्चन्द्रकलारत्न मुकुटां मुण्डमालिनीं॥
त्रिनेत्रां रक्त वसनां पीनोन्नत घटस्तनीं।
पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात्॥
दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानितां।
अथवा
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी
या धूम्रेक्षन चण्डमुण्डमथनी या रक्त बीजाशनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि दात्री परा
सा देवी नव कोटि मूर्ति सहिता मां पातु विश्वेश्वरी॥
ॐ नमश्चण्डिकायै
मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयत्वं देवि चामुण्डे जय भूतापहारिणि।
जय सर्व गते देवि काल रात्रि नमोस्तुते   ॥1॥
मधुकैठभविद्रावि विधात्रु वरदे नमः
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ॥2॥
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते    
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥3॥
महिषासुर निर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥4॥
धूम्रनेत्र वधे देवि धर्म कामार्थ दायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥5॥
रक्त बीज वधे देवि चण्ड मुण्ड विनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥6॥
निशुम्भशुम्भ निर्नाशि त्रैलोक्य शुभदे नमः
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥7॥
वन्दि ताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्य दायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥8॥
अचिन्त्य रूप चरिते सर्व शतृ विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥9॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥10॥
स्तुवद्भ्योभक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधि नाशिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥11॥
चण्डिके सततं युद्धे जयन्ती पापनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥12॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवी परं सुखं।
रूपं धेहि जयं देहि यशो धेहि द्विषो जहि    ॥13॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियं।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥14॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥15॥
सुरासुरशिरो रत्न निघृष्टचरणेम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥16॥
विध्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥17॥
देवि प्रचण्ड दोर्दण्ड दैत्य दर्प निषूदिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥18॥
प्रचण्ड दैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणतायमे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥19॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥20॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥21॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥22॥
इन्द्राणी पतिसद्भाव पूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥23॥
देवि भक्तजनोद्दाम दत्तानन्दोदयेम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥24॥
भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीं।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥25॥
तारिणीं दुर्ग संसार सागर स्याचलोद्बवे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि     ॥26॥
इदंस्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभं      ॥27॥
॥ इति श्री अर्गला स्तोत्रं समाप्तम् ॥


No comments:

Post a Comment